Friday 23 September 2011

हाशिये पर



सत्य और कथा ...
दो अलग पाट हैं जीवन के
अनुमान का जल
न सत्य को उद्भाषित कर पाता है
न कथा के मूल को ... !
लकड़ी की नाव से
इस किनारे से उस किनारे तक जाने के मध्य
जीवन भी है और मृत्यु भी...
न जीवन का वक़्त है न मृत्यु का
तुम्हारी जिजीविषा तुम्हारी चाह
नदी के दोनों पाट पर महल तो खड़े करते हैं
पर महलों में प्राण प्रतिष्ठा हो ही
यह कौन कह सकता है !
किसी सन्नाटे को चीरना यदि आसान होता
तो दर्द का लम्हा घातक न होता ....
खोना ... खोते जाना ...
जीवन चक्र कहो या जीवन सार
!!!
किसने कितना खोया
किसके दर्द का आधार था
कौन सा दर्द निराधार .... कैसे तय होगा ?
... सच है - तुमने गुलाब उगाये थे
मैंने कैक्टस लगाए ....
कैक्टस के सत्य से परिचित लोग
कैक्टस से दूर रहे
और गुलाब के अप्रतिम सौन्दर्य में
लहुलुहान हुए -
अब इसमें समझदारी और बेवकूफी की बात का
कौन सा पलड़ा लोगे !
प्यार न समझदार होता है न बेवकूफ
वह तो एक अक्षुण सत्य है
जो किसी किसी के हिस्से आता है ....
अपनी बनाई चौखट से
तुम जो भी जोड़ घटाव करो
पर उसकी चौखट के आगे
तुम भी हाशिये पर हो .... !!!

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