हकीकत... अक्सर खौफज़दा मोड़ से गुजरती है
क्योंकि उस मोड़ पे सिर्फ हम नहीं होते
बिना हमारे चाहे
नाम अनाम कई लोग
शुभचिंतक की लिबास में
मोड़ का निर्माण करते हैं
खुद को बेहतर बताने के क्रम में
पूरी हकीकत स्तब्द्ध बना देते हैं ...
वजूद के चीथड़े उड़ जाते हैं
सवालों के पोस्टमार्टम से
घर शमशान सा लगता है
घड़ी की टिक टिक इतनी तीव्र हो जाती है
कि और कुछ सुनाई नहीं देता
जो वेदना के सहचर होते हैं
उनका साथ भी उबाऊ लगने लगता है
........
ऐसे में ख्याल आता है -
बेहतर था ख्वाब देखना
झूठ ही सही - दिल तो बहलता है
कभी हकीकत होंगे ये ख्वाब
यह झूठा वहम तो पलता है
शाम हो या रात
हर वक़्त गुनगुनाने लगती है
नींद में भी चेहरे पर मुस्कान थिरकती है
सुबह का सूरज अपना लगता है ...
सिर्फ अपना !!!
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