गुत्थियां सुलझती ही नहीं
इतनी गांठें हैं , इतनी कसी
कि खोलते खोलते उंगलियाँ दुखने लगी हैं
कहीं कहीं से छिल भी गई हैं ...
....................
शुरू से मुझे इन गुत्थियों से डर लगता रहा है
शायद इसीलिए गुत्थियां मेरा पीछा करती हैं
ताकि एक दिन मेरा डर ख़त्म हो जाए
मैं अपनी उँगलियों का ख्याल करने लगूँ
उदासीन हो जाऊँ गांठों से
या फिर इस सत्य को स्वीकार कर लूँ
कि कभी भी कोई गांठ नहीं खुलती ...
0 comments:
Post a Comment