Friday 23 September 2011

रात की झिड़कियां



जब जब मैं हठी की तरह सोती नहीं
करवटें बदलती हूँ
यादों की सांकलें खटखटाती हूँ -
चिड़िया घोंसले से झांकती है
चाँद खिड़की से लगकर निहारता है
हवाओं की साँसें थम जाती हैं
माथे पर बल देकर रात कहती है
'सांकलों पर रहम करो
यादों पर अपनी पकड़ ढीली करो
पीछे कुछ भी नहीं ....
दिल पर जोर न पड़े
आँखों के नीचे स्याह धब्बे न पड़े
इसीलिए न मैं आती हूँ
करवटों से कुछ नहीं होगा
उलजलूल के सिवा कुछ भी पल्ले नहीं पड़ेगा
सो जाओ ..... '
और इस प्यार भरी झिड़की के सम्मान में
रात के तीसरे पहर मैं सो जाती हूँ
चिड़िया एक अंगड़ाई ले दुबक जाती है
कहती है - आज देर से उठूंगी
चाँद चलने की तैयारी करता है
हवाएँ साँसें लेने लगती हैं
मुझे छूकर थपकियाँ देती हैं
रात अलसाई अपने चादर समेटने लगती है
........ क्या करूँ , होता है ऐसा कई बार ...
सब कहते हैं - इस उम्र में ऐसा होता है
पर मुझे तो सब यादों का तकाजा ही लगता है
तभी तो -
नींद की दवा भी हार हार जाती है
रात की झिड़कियां और हवाओं की थपकियाँ ही
हठ की दीवारें गिरा
पलकें बन्द कर जाती हैं

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